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आयु॑ष्मानग्ने ह॒विषा॑ वृधा॒नो घृ॒तप्र॑तीको घृ॒तयो॑निरेधि। घृ॒तं पी॒त्वा मधु॒ चारु॒ गव्यं॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रम॒भि र॑क्षतादि॒मान्त्स्वाहा॑ ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आयु॑ष्मान्। अ॒ग्ने॒। ह॒विषा॑। वृ॒धा॒नः। घृ॒तप्र॑तीक॒ इति॑ घृ॒तऽप्र॑तीकः। घृ॒तयो॑नि॒रिति॑ घृ॒तऽयो॑निः। ए॒धि॒ ॥ घृ॒तम्। पी॒त्वा। मधु॑। चारु॑। गव्य॑म्। पि॒तेवेति॑ पि॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। अ॒भि। र॒क्ष॒ता॒त्। इ॒मान्। स्वाहा॑ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:35» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान तेजस्वी राजन् ! जैसे (हविषा) घृतादि से (वृधानः) बढ़ा हुआ (घृतप्रतीकः) जल को प्रसिद्ध करनेवाला (घृतयोनिः) प्रदीप्त तेज जिसका कारण वा घर है, वह अग्नि बढ़ता है, वैसे (आयुष्मान्) बहुत अवस्थावाले आप (एधि) हूजिये (मधु) मधुर (चारु) सुन्दर (गव्यम्) गौ के (घृतम्) घी को (पीत्वा) पी के (पुत्रम्) पुत्र की (पितेव) पिता जैसे वैसे (स्वाहा) सत्य क्रिया से (इमान्) इन प्रजास्थ मनुष्यों की (अभि) प्रत्यक्ष (रक्षतात्) रक्षा कीजिये ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यादि रूप से अग्नि बाहर भीतर रह कर सबकी रक्षा करता है, वैसे ही राजा पिता के तुल्य वर्त्ताव करता हुआ पुत्र के समान इन प्रजाओं की निरन्तर रक्षा करे ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजधर्मविषयमाह ॥

अन्वय:

(आयुष्मान्) बह्वायुर्विद्यते यस्य सः (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान राजन् (हविषा) घृतादिना (वृधानः) वर्द्धमानः। अत्र बहुलं छन्दसीति शानचि शपो लुक्। (घृतप्रतीकः) यो घृतमुदकं प्रत्याययति सः (घृतयोनिः) घृतं प्रदीप्तं तेजो योनिः कारणं गृहं वा यस्य सः (एधि) भव (घृतम्) (पीत्वा) (मधु) मधुरम् (चारु) सुन्दरम् (गव्यम्) गोर्विकारम् (पितेव) (पुत्रम्) (अभि) आभिमुख्ये (रक्षतात्) रक्ष (इमान्) (स्वाहा) सत्यया क्रियया ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! यथा हविषा वृधानो घृतप्रतीको घृतयोनिरग्निर्वर्द्धते तथाऽऽयुष्माँस्त्वमेधि। मधु चारु गव्यं घृतं पीत्वा पितेव स्वाहेमानभि रक्षतात् ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोमालङ्कारः। यथा सूर्यादिरूपेणाग्निर्बाह्याभ्यन्तरः सन् सर्वान् रक्षति, तथैव राजा पितृवद्वर्त्तमानः सन् पुत्रमिवेमाः प्रजाः सततं रक्षेत ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्यरूाने अग्नी जसा सर्व ठिकाणी सर्वांचे रक्षण करतो तसे राजाने प्रजेबरोबर पित्याप्रमाणे वागावे व पुत्राप्रमाणे त्यांचे रक्षण करावे.